अथ श्री जगन्नाथप्रणामः– दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करें
नीलाचलनिवासाय नित्याय परमात्मने।
बलभद्रसुभद्राभ्यां जगन्नाथाय ते नमः।।
जगदानन्दकन्दाय प्रणतार्तहराय च।
नीलाचलनिवासाय जगन्नाथाय ते नमः।।
1- रत्नाकरस्तव गृहं गृहिणी च पद्मा, किं देयमस्ति भवते पुरुषोत्तमाय।
अभीर, वामनयनाहृतमानसाय, दत्तं मनो यदुपते त्वरितं गृहाण।।
2- भक्तानामभयप्रदो यदि भवेत् किन्तद्विचित्रं प्रभो कीटोऽपि स्वजनस्य रक्षणविधावेकान्तमुद्वेजितः।
ये युष्मच्चरणारविन्दविमुखा स्वप्नेऽपि नालोचका- स्तेषामुद्धरण-क्षमो यदि भवेत् कारुण्यसिन्धुस्तदा।।
3- अनाथस्य जगन्नाथ नाथस्त्वं मे न संशयः, यस्य नाथो जगन्नाथस्तस्य दुःखं कथं प्रभो।।
या त्वरा द्रौपदीत्राणे या त्वरा गजमोक्षणे, मय्यार्ते करुणामूर्ते सा त्वरा क्व गता हरे।।
4- मत्समो पातकी नास्ति त्वत्समो नास्ति पापहा ।
इति विज्ञाय देवेश यथायोग्यं तथा कुरु।।
कदाचित् कालिन्दी तट विपिन सङ्गीत तरलो
मुदाभीरी नारी वदन कमला स्वाद मधुपः
रमा शम्भु ब्रह्मामरपति गणेशार्चित पदो
जगन्नाथः स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे ॥१॥
भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिच्छं कटितटे
दुकूलं नेत्रान्ते सहचर-कटाक्षं विदधते ।
सदा श्रीमद्-वृन्दावन-वसति-लीला-परिचयो
जगन्नाथः स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥२॥
महाम्भोधेस्तीरे कनक रुचिरे नील शिखरे
वसन् प्रासादान्तः सहज बलभद्रेण बलिना ।
सुभद्रा मध्यस्थः सकलसुर सेवावसरदो
जगन्नाथः स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥३॥
कृपा पारावारः सजल जलद श्रेणिरुचिरो
रमा वाणी रामः स्फुरद् अमल पङ्केरुहमुखः ।
सुरेन्द्रैर् आराध्यः श्रुतिगण शिखा गीत चरितो
जगन्नाथः स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे ॥४॥
रथारूढो गच्छन् पथि मिलित भूदेव पटलैः
स्तुति प्रादुर्भावम् प्रतिपदमुपाकर्ण्य सदयः ।
दया सिन्धुर्बन्धुः सकल जगतां सिन्धु सुतया
जगन्नाथः स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे ॥५॥
परंब्रह्मापीड़ः कुवलय-दलोत्फुल्ल-नयनो
निवासी नीलाद्रौ निहित-चरणोऽनन्त-शिरसि ।
रसानन्दी राधा-सरस-वपुरालिङ्गन-सुखो
जगन्नाथः स्वामी नयन-पथगामी भवतु मे ॥६॥
न वै याचे राज्यं न च कनक माणिक्य विभवं
न याचेऽहं रम्यां सकल जन काम्यां वरवधूम् ।
सदा काले काले प्रमथ पतिना गीतचरितो
जगन्नाथः स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे ॥७॥
हर त्वं संसारं द्रुततरम् असारं सुरपते
हर त्वं पापानां विततिम् अपरां यादवपते ।
अहो दीनेऽनाथे निहित चरणो निश्चितमिदं
जगन्नाथः स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे ॥८॥
जगन्नाथाष्टकं पुन्यं यः पठेत् प्रयतः शुचिः ।
सर्वपाप विशुद्धात्मा विष्णुलोकं स गच्छति ॥९॥
॥ इति श्रीमत् शंकराचार्यविरचितं जगन्नाथाष्टकं संपूर्णम् ॥
॥ दोहा ॥
श्री जगन्नाथ जगत गुरू,
आस भगत के आप।
नाम लेते ही आपका,
मिटे कष्ट संताप ।।
मैं अधम हूँ मूढ़ मति,
पूजा विधि का ना ज्ञान ।
दोष मेरा ना धरना नाथ,
मैं हूँ तेरी संतान ।।
।। चौपाई।।
जय जगन्नाथ जगत के पालक,
भव भय भंजन कष्ट निवारक ।
संगी साथी ना जिसका कोई,
आसरा उसका बस एक तू ही ।।
भगतों के दुख दूर करे तु,
संतों के सदा मन में बसे तू ।
पतित पावन नाम तिहारा,
सारे जग में तू इक प्यारा ।।
शंख क्षेत्र में धाम है तेरा,
पीड़ हरे है नाम तिहारा ।
सागर तट में नीलगिरी पर,
तूने बसा लिया अपना घर ।।
जो तेरे रूप को मन में बसाये,
चिन्ता जगकी ना उसे सताये ।
तेरी शरण में जो भी आये,
विपदा से तू उसे बचाये ।।
धाम तेरा हर धाम से न्यारा,
जिसके बिना है तीर्थ अधूरा ।
ना हो जब तक तेरे दर्शन,
निष्फल जीवन और तीर्थाटन ।।
हाथ पैर नहीं है प्रभु तेरा,
फिर भी सभी को तेरा ही आसरा ।
नाथ जगत का तू कहलाता,
हर कोई तेरी महिमा गाता ।।
भगतों को तू सदा लुभाता,
महिमा अपनी उनसे गँवाता ।
दासी या भगत था एक अनोखा,
रूप तेरा साग भात में देखा ।।
अपने बगीचे से श्रीफल तोड़ा,
दे ब्राह्मण को हाथ वो जोड़ा।
जा रहे प्रभु का करने दर्शन,
श्रीफल ये कर देना अर्पण ।।
अनहोनी ऐसी हुई भाई,
प्रभु ने बाँहे अपनी बढ़ाई।
हाथ से विप्र के ले नारियल,
दासिया को दिया भक्ति का फल ।।
बंधु महंती की भक्ति कहें क्या,
प्रभु को मित्र सा प्यारा वो था ।
दर्श का आस तेरे ले मन में,
आया तेरे पुनीत नगर में ।।
संग में लाया कुटुंब था अपना,
पहुँचा तुझ तक जब हुई रैना ।
सिंह द्वार मंदिर का बंद था,
भूखे पेट बंधु सोया था ।।
भगत का कष्ट ना सह पाये भगवन,
स्वर्ण थाल में लाये भोजन ।
साल वेग पूत मुगल पिता का नाम तेरा हर पल लेता था ।।
रथ यात्रा में आ पाये न पुरी,
सैकड़ों कोस की थी जो दूरी।
गुहार लगाई जगन्नाथ को,
आँऊ न जब तक रोकना रथ को ।।
सारा जग तब चकित हुआ था,
भक्त की इच्छा जब पूर्ण हुई थी।
डूबे जग देव भक्ति में तेरे, गीत गोविंद रचा नाम में तेरे ।।
लिखते लिखते कवि ठहर गये,
रचना पूर्ण कौन कर पाये।
पत्नि से कहा स्नान कर आँऊ,
आकर फिर से बुद्धि लगाँऊ ।।
रूप कवि का धरा प्रभु ने,
गीत अधूरा किया पूर्ण प्रभू ने ।
प्रेम से भक्त के प्रभु बंधे हैं,
भक्ति प्रीति के डोर से जुड़े हैं।।
बिना मोल के प्यार से बिकता,
कर्मा बाई की खिचड़ी खाता ।
जात पात का भेद न कोई,
जो तुझे देखा सुध बिसराई ।।
शंकर देव निराकार उपासक,
देख तुझे बने तेरे स्थापक ।
श्री गुरुनानक संत कबीरा,
हर कोई तुझको एक सा प्यारा ।।
तुम सा प्रभु कोई और कहाँ है,
भक्त जहाँ है तू भी वहाँ है।
भक्तों के मन को हरषाने,
रथ पर आता दर्शन देने ।
पाकर प्यारे प्रभु का दर्शन,
कर लो धन्य सभी यह जीवन ।।
जय जगन्नाथ प्रेम से बोलो,
अमृत नाम का कहे कुंदन पी लो।
।। दोहा ।।
कृष्ण बलराम दोनों ओर बीच सुभद्रा बहन ।
नीलंचल वासी जगन्नाथ सदा बसो मोरे मन ।।
जगन्नाथ जगन्नाथ जगन्नाथ जगन्नाथ
चारों धाम में सबसे बड़ा है ,जगन्नाथ धाम
जगन्नाथ भगवान की, महिमा अपरम्पार
भक्तों को दर्शन देते,करते उनके काम।
कर लो भक्तों ,जगन्नाथ का ध्यान बारंबार।
जगन्नाथ जगन्नाथ जगन्नाथ जगन्नाथ
भज लो रे भक्तों जगन्नाथ को
तर जाओगे भव सागर पार।
तन मन जीवन अर्पण कर दो
प्रभु की , लीला अपरम्पार।
जगन्नाथ जगन्नाथ जगन्नाथ जगन्नाथ
सात पुरियों में एक है ,जगन्नाथ पुरी धाम
जगन्नाथ के भात को ,जगत पसारे हाथ।
करलो भक्तों महाप्रभु के ,दर्शन बारंबार
जहां विराजे जगन्नाथ ,बलभद्र ,सुभद्रा साथ।
जगन्नाथ जगन्नाथ जगन्नाथ जगन्नाथ